Krishna Quotes | Krishna Quotes in Hindi|

 ‌"Krishna Quotes"

'Krishna Quotes in Hindi'-

"Shri Krishna", एक अपूर्व आदर्श और महान व्यक्तित्व, हिन्दू धर्म के सबसे प्रसिद्ध और प्रिय देवताओं में से एक हैं। उनका जीवन, उनके उद्धार के लिए धार्मिकता और नैतिकता की उच्चतम मान्यताओं का उपहार है। वे मानवता के प्रतीक बने हुए हैं और उनके वचन और उद्धरण साधारण जीवन के अलावा आत्मिक सुख और संतुष्टि का भी मार्गदर्शन करते हैं।
श्री कृष्णा के अद्वैतवादी विचार उनके भगवद्गीता में प्रकट होते हैं, जिसे विश्वगुरु अर्जुन को दिया गया था। उनके उद्धार करने के लिए, श्री कृष्णा ने अर्जुन को मानवीय दुविधाओं, आस्तिकता और धर्म के महत्व पर गहराई से विचार करने की प्रेरणा दी। उनके उद्धार के लिए वे अपने भक्तों को सच्ची भक्ति के माध्यम से उच्चतम आनंद और मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं।
Shri Krishna के उद्धरण अत्यंत प्रभावशाली हैं और उन्हें सामान्यतः "Shri Krishna Quotes !!" के रूप में जाना जाता है। उनके उद्धरण जीवन के मुद्दों, प्रेम, सच्ची भक्ति, नैतिकता, संघर्ष, सफलता, और आत्मविश्वास को व्यक्त करते हैं। उनके उद्धरण सदैव अपार समझदारी, शांति, और प्रेरणा से भरे होते हैं। श्री कृष्णा के उद्धरण व्यापक रूप से लोगों को संतोष, संघर्ष, और स्वयं से मिलने वाली सच्ची खुशी के मार्ग पर गम्भीर प्रेरणा प्रदान करते हैं।

इस Blog " Krishna Quotes" के माध्यम से हम उनके महान वचनों को जानेंगे, जो हमें जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करने और सामर्थ्यपूर्ण निर्णय लेने में मदद करेंगे। इन उद्धरणों के माध्यम से हम अपने जीवन को संवेदनशील बनाकर, आनंद और आदर्शवाद के साथ यात्रा करेंगे। आइए, हम सभी इस अद्वैतवादी आध्यात्मिक गुरु के अद्वैतवादी ज्ञान को जानें और अपने जीवन को सुंदरता, सामर्थ्य, और समृद्धि से भर 
दे !!

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नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च|

मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद||

हे नारद! मैं न तो वैकुंठ में ही रहता हुं और न योगियों के हृदय में ही रहता हुं|

मैं तो वहीं रहता हूं, जहां मेरे भक्त प्रेमाकुल होकर मेरे नाम का संकीर्तन किया करते हैं||


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

अर्थ: मै प्रकट होता हूं, मैं आता हूं,जब जब धर्म की हानि होती है,तब तब मैं आता हूं,जब जब अधर्म बढता है तब तब मैं आता हूं, 

सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूं,दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं,धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं।


कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थ – श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन,कर्म करना तुम्हारा अधिकार है परन्तु फल की इच्छा करना तुम्हारा अधिकार नहीं है| 

कर्म करो और फल की इच्छा मत करो अर्थात फल की इच्छा किये बिना कर्म करो क्यूंकि फल देना मेरा काम है|


सभी अच्छे काम छोड़ कर बस भगवान में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाओ,मैं तुम्हे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा,शोक मत करो।


सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा,चिन्ता मत कर।


श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन सफलता और असफलता की आसक्ति को त्यागकर सम्पूर्ण भाव से समभाव होकर अपने कर्म को करो|

 यही समता की भावना योग कहलाती है|


श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे पार्थ अपनी बुद्धि, योग और चैतन्य द्वारा निंदनीय कर्मों से दूर रहो और समभाव से भगवान की शरण को प्राप्त हो जाओ| जो व्यक्ति अपने सकर्मों के फल भोगने के अभिलाषी होते हैं वह कृपण (लालची) हैं|


श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, ईश्वरभक्ति में स्वयं को लीन करके बड़े बड़े ऋषि व मुनि खुद को इस भौतिक संसार के कर्म और फल के बंधनों से मुक्त कर लेते हैं| इस तरह उन्हें जीवन और मरण के बंधनो से भी मुक्ति मिल जाती है| ऐसे व्यक्ति ईश्वर के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं जो समस्त दुःखों से परे है|


श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जब तुम्हारी बुद्धि इस मोहमाया के घने जंगल को पार कर जाएगी तब सुना हुआ या सुनने योग्य सब कुछ से तुम विरक्त हो जाओगे|


श्री कृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ! जब तुम्हारा मन कर्मों के फलों से प्रभावित हुए बिना और वेदों के ज्ञान से विचलित हुए बिना,आत्मसाक्षात्कार की समाधि में स्थिर हो जायेगा तब तुम्हें दिव्य चेतना की प्राप्ति हो जायेगी|


श्री कृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ, जब कोई मानव समस्त इन्द्रियों की कामनाओं को त्यागकर उनपर विजय प्राप्त कर लेता है| जब इस तरह विशुद्ध होकर मनुष्य का मन आत्मा में संतोष की प्राप्ति कर लेता है तब उसे विशुद्ध दिव्य चेतना की प्राप्ति हो जाती है|


 श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि इस समस्त संसार का धाता अर्थात धारण करने वाला, समस्त कर्मों का फल देने वाला, माता, पिता, या पितामह, ओंकार, जानने योग्य और ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद भी मैं ही हूँ|


श्री कृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ, इस समस्त संसार में प्राप्त होने योग्य, सबका पोषण कर्ता, समस्त जग का स्वामी, शुभाशुभ को देखने वाला, प्रत्युपकार की चाह किये बिना हित करने वाला, सबका वासस्थान, सबकी उत्पत्ति व प्रलय का हेतु, समस्त निधान और अविनाशी का कारण भी मैं ही हूँ|


श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, सूर्य का ताप मैं ही हूँ, मैं ही वर्षा को बरसाता हूँ और वर्षा का आकर्षण भी मैं हूँ| हे पार्थ, अमृत और मृत्यु में भी मैं ही हूँ और सत्य और असत्य में भी मैं हूँ|


श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, ये आत्मा अजर अमर है, इसे ना तो आग जला सकती है, और ना ही पानी भिगो सकता है, ना ही हवा इसे सुखा सकती है और ना ही कोई शस्त्र इसे काट सकता है| ये आत्मा अविनाशी है|


वह जो इस ज्ञान में विश्वास नहीं रखते,मुझे प्राप्त किये बिना जन्म और मृत्यु के चक्र का अनुगमन करते हैं।


मन की गतिविधियों,होश,श्वास,और भावनाओं के माध्यम से भगवान की शक्ति सदा तुम्हारे साथ है; और लगातार तुम्हे बस एक साधन की तरह प्रयोग कर के सभी कार्य कर रही है।


क्रोध से  भ्रम  पैदा होता है.भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है.

जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाता है,जब तर्क नष्ट होता है तब व्यक्ति का पतन हो जाता है।


“बुद्धिमान व्यक्ति अपने द्वारा किए गए कर्मों को

और अपने ज्ञान को हमेशा एक ही रूप से देखता है”


एक उपहार तभी अच्छी और पवित्र लगता हैं जब वह दिल से किसी सही व्यक्ति को सही समय और सही जगह पर दिया जायें

और जब उपहार देने वाला व्यक्ति दिल उस उपहार के बदले कुच्छ पाने का उम्मीद ना रखता हो।


“बुद्धिहीन व्यक्ति के लिए सोने और गंदगी में कोई फर्क नहीं होता”


नर्क के तीन द्वार हैं:वासना,क्रोध और लालच।


जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु उतनी ही निश्चित है जितना कि मृत होने वाले के लिए जन्म लेना

इसलिए जो अपरिहार्य है उस पर शोक मत करो।


भगवान या परमात्मा की शांति उनके साथ होती हैं जिसके मन और आत्मा मे एकता हो, जो इच्छा और क्रोध से मुक्त हो, जो अपने खुद के आत्मा को सही मायने मे जनता हो।

प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए,गंदगी का ढेर,पत्थर,और सोना सभी समान हैं।


चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह॥ 

रहीम कहते हैं कि किसी चीज़ को पाने की लालसा जिसे नहीं है,उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं हो सकती। जिसका मन इन तमाम चिंताओं से ऊपर उठ गया, किसी इच्छा के प्रति बेपरवाह हो गए, वही राजाओं के राजा हैं।


“मैं अपने कर्मों से बंधा हुआ नहीं हूं क्योंकि मुझे मेरे द्वारा

किए गए कर्मों के प्रतिफल की कोई इच्छा नहीं है”

किसी दूसरे के जीवन के साथ पूर्ण रूप से जीने से अच्छा हैं की हम अपने स्वंय के भाग्य के अनुसार अपूर्ण जियें।


“हमें खुद सोचना चाहिए कि खुद में बदलाव लाना कितना कठिन होता है,

तो फिर क्यों हम दूसरों में बदलाव लाने को सरल सोचते हैं”


“श्री कृष्ण पर इतना भरोसा और उनकी इतनी भक्ति करो कि

जीवन में जब भी हम पर संकट आए तो चिंता स्वयं श्रीकृष्ण करें”


“जिस प्रकार दीपक में तेल समाप्त होने पर दीपक बुझ जाता है,

ठीक उसी प्रकार मनुष्य के कर्म जब क्षीण होने लगते हैं,

तब उस मनुष्य का भाग्य भी नष्ट हो जाता है”


“इस पृथ्वी पर ऐसा कोई भी नहीं जो मनुष्य कीआशाओं को पूर्ण कर सके,

क्योंकि मनुष्यों की आशा उस समुद्र के समान होती है जिसे कभी भी भरा नहीं जा सकता”


“जिस प्रकार प्रकृति में समय-समय पर बदलाव आता है,

ठीक उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में भी सुख और दुख,

आशा, निराशा सफलता और असफलता आते जाते रहते हैं”


“असफलताओं के तालों को खोलने के लिए इस दुनिया में सिर्फ दो ही चाबी होती है,

पहली चाबी होती है दृढ़ संकल्प और दूसरी कठोर परिश्रम”


“मैं इस संसार के हर प्राणी को एक समान भाव से देखता हूं,

ना कोई मुझे अधिक पसंद है और ना ही कोई मुझे कम पर,

जो भी मेरी श्रद्धा पूर्वक और प्रेम से मेरी आराधना करता है मैं उन सभी के अंदर वास करता हूं,

और उनके जीवन में उनको कभी ना कभी दर्शन जरूर देता हूं”


“हर मनुष्य को अपने इश्वर पर अटूट आस्था होनी चाहिए,

क्योंकि अर्जुन ने भी युद्ध भूमि में जाने से पहले श्री कृष्ण को ही चुना था”


“इस कथन में कोई भी संदेह नहीं है कि जो भी मनुष्य मृत्यु के समय मेरा स्मरण करता है,

और मेरा स्मरण करते हुए अपने शरीर को त्यागता है वह मनुष्य मेरे धाम में वास करता है”!!


“हमारे मन का अहंकार उस वृक्ष की तरह होता है,

जिसमें सिर्फ विनाश के फल ही लगते हैं”!


भजन का मार्ग दुख और सुख कम अधिक करने का मार्ग नहीं हैं 
एकमात्र ठाकुर जी की शरणागति  ही जीव को निर्भय कर सकती हैं
शरणागति तब पूरी हैं जब शरण्य भी समर्थ हों.


💟प्रेम और विश्वास💘सही स्थान और दिशा में लगाया जाए तभी सुखद परिणाम देता हैं💌


🤭🤕संसार में बुद्धि लगानी हैं और🤦🏻‍♂️🤦🏻‍♀️प्रभु में मन और मुर्ख प्राणी उल्टा ही करता आ रहा हैं और कहता जीवन में सुख नहीं हैं अरे कहा से आ जायेगा सुख🤦🏻🤷🏻


‼️संसार की सच्चाई तो यह हैं स्वार्थ, कहता हैं प्रेम हैं स्नेह हैं लेकिन चाहता अपने स्वार्थ की पूर्ति ही हैं ⛔


जीव का सच्चा हितैषी केवल और केवल और केवल संत हैं..!!


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